गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण मार्कण्डेय पुराणगीताप्रेस
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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...
श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
मार्कण्डेयजी कहते हैं-द्विजश्रेष्ठ! विश्वयोनि भगवान् नारायणका जो ध्रुवाधार* नामक पद है, उसीसे त्रिपथगामिनी भगवती गङ्गाका प्रादुर्भाव हुआ है।
* इसीको शिशुमार चक्र भी कहते हैं।
वहाँसे चलकर वे सुधाकी उत्पत्तिके स्थान और जलके आधारभूत चन्द्रमण्डलमें प्रविष्ट हुईं और सूर्यकी किरणोंके सम्पर्कसे अत्यन्त पवित्र हो मेरुपर्वतके शिखरपर गिरी। वहाँ उनकी चार धाराएँ हो गयीं। मेरुके शिखरों और तटोंसे नीचे गिरती-बहती गङ्गाका जल चारों ओर बिखर गया और आधार न होनेके कारण नीचे गिरने लगा। इस प्रकार वह जल मन्दर आदि चारों पर्वतोंपर बराबर-बराबर बँट गया। अपने वेगसे बड़े-बड़े पर्वतोंको विदीर्ण करती हुई गङ्गाकी जो धारा पूर्व दिशाकी ओर गयी, वह सीताके नामसे विख्यात हुई। सीता चैत्ररथ नामक वनको जलसे आप्लावित करती हुई वरुणोद सरोवरमें गयी और वहाँसे शीतान्त पर्वत तथा अन्य पहाड़ोंको लाँघती हुई पृथ्वीपर पहुँची। वहाँसे भद्राश्ववर्षमें होती हुई समुद्र में मिल गयी। इसी प्रकार मेरुके दक्षिण गन्धमादनपर्वतपर जो गङ्गाकी दूसरी धारा गिरी, वह अलकनन्दाके नामसे विख्यात हुई। अलकनन्दा मेरुकी घाटियोंपर फैले हुए नन्दन वनमें, जो देवताओंको आनन्द प्रदान करनेवाला है, बहती हुई बड़े वेगसे चलकर मानसरोवरमें पहुँचीं। उस सरोवरको अपने जलसे परिपूर्ण करके गङ्गा शैलराजके रमणीय शिखरपर आयीं। वहाँसे क्रमशः दक्षिणमें स्थित समस्त पर्वतोंको अपने जलसे आप्लावित करती हुई महागिरि हिमवान्पर जा पहुँचीं। वहाँ भगवान् शङ्करने गङ्गाजीको अपने शीशपर धारण कर लिया और फिर नहीं छोड़ा। तब राजा भगीरथने आकर उपवास और स्तुतिके द्वारा भगवान् शिवकी आराधना की। उससे प्रसन्न होकर महादेवजीने गङ्गाको छोड़ दिया। फिर वे सात धाराओंमें विभक्त होकर दक्षिण समुद्रमें जा मिलीं। उनकी तीन धाराएँ तो पूर्व दिशाकी ओर गयीं। एक धारा भगीरथके पीछे-पीछे दक्षिण दिशाकी ओर बहने लगी।
मेरुगिरिके पश्चिममें जो विपुल नामक पर्वत है, उसपर गिरी हुई महानदी गङ्गाकी धारा स्वरक्षुके नामसे विख्यात हुई। वहाँसे वैराज पर्वतपर होती हुई स्वरक्षु शीतोद सरोवरमें गयी और उसे आप्लावित करके त्रिशिख पर्वतपर पहुँच गयी। फिर वहाँसे अन्य पर्वतोंके शिखरोंपर होती हुई केतुमालवर्षमें पहुँचकर खारे पानीके समुद्रमें मिल गयी। मेरुके उत्तरीय पाद सुपार्श्वपर्वतपर गिरी हुई गङ्गाकी धारा सोमाके नामसे विख्यात हुई और सावित्र वनको पवित्र करती हुई महाभद्र सरोवरमें जा पहुँची। वहाँसे शङ्खकूट पर्वतपर जा क्रमशः वृषभ आदि शैलमालाओंको लाँघती हुई उत्तरकुरु नामक वर्षमें बहने लगी। अन्ततोगत्वा महासागरमें जा मिली।
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- मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
- मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
- श्राद्ध-कर्म का वर्णन
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- मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
- एक ही परमात्माके त्रिविध रूप, ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान तथा सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन
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- स्वायम्भुव मनुकी वंश-परम्परा तथा अलक्ष्मी-पुत्र दुःसह के स्थान आदि का वर्णन
- दुःसह की सन्तानों द्वारा होनेवाले विघ्न और उनकी शान्ति के उपाय
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- स्वरोचिष् तथा स्वारोचिष मनुके जन्म एवं चरित्रका वर्णन
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- रैवत मनुकी उत्पत्ति और उनके मन्वन्तरका वर्णन
- चाक्षुष मनु की उत्पत्ति और उनके मन्वन्तर का वर्णन
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- सावर्णि मनुकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें देवी-माहात्म्य
- मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना
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- सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
- इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
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- धूम्रलोचन-वध
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- देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
- सुरथ और वैश्यको देवीका वरदान
- नवें से लेकर तेरहवें मन्वन्तर तक का संक्षिप्त वर्णन
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- सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
- अदितिके गर्भसे भगवान् सूर्यका अवतार
- सूर्यकी महिमाके प्रसङ्गमें राजा राज्यवर्धनकी कथा
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- वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
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- क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
- राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
- श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य